Practicum: 1. Use of MS Office (एमएस वर्ड में सचित्र लेख)
1.मेरे आदर्श व्यक्तित्व (स्वामी रामकृष्ण परमहंस )
परिचय
रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।
जीवन परिचय-
रामकृष्ण परमहंस ने पश्चिमी बंगाल के हुगली ज़िले में कामारपुकुर नामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फ़रवरी, सन् 1836 ई. में जन्म लिया। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। गदाधर के पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय निष्ठावान ग़रीब ब्राह्मण थे। वह अपने साधु माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गाँव के भोले-भाले लोगों के लिए भी शाश्वत आनंद के केंद्र थे। उनका सुंदर स्वरूप, ईश्वरप्रदत्त संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएँ, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, और सबके ऊपर उनकी अपने माता-पिता के प्रति अगाध भक्ति इन सबने उन्हें पूरे गाँव का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु 16 अगस्त 1886 को 50 वर्ष की उम्र मे कोलकाता में हो गया था |
दर्शन से कृतार्थ
रामकृष्ण परमहंस ने जगन्माता की पुकार के उत्तर में गाँव के वंशपरंपरागत गृह का परित्याग कर दिया और सत्रह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ ठहर गए, और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। रामकृष्ण परमहंस भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। जगज्जननी के गहन चिंतन में उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक संसर्ग को पूर्ण रूप से भुला दिया। माँ के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। अंत में उनकी प्रार्थना सुन ली गई और जगन्माता के दर्शन से वे कृतकार्य हुए। किंतु यह सफलता उनके लिए केवल संकेत मात्र थी। परमहंस जी असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुँच गए जहाँ से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे।
आध्यात्मिक विचार
इस प्रकार परमहंस जी का जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तर से क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊँचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुँचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुँचने के लिए आध्यात्मिक विचार- द्वैतवाद, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान् श्रेणियाँ मार्ग की अवस्थाएँ थीं। वे एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।
विवाह
बंगाल में बाल विवाह की प्रथा है। गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था। उनकी बालिका पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आयीं तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- "ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?" परमहंस जी कहा करते थे- "जो माँ जगत् का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।" ये विचार उनके अपनी पत्नी माँ शारदामणि के प्रति थे
अमृतोपदेश
एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा सन्न्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया। परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है, किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते। परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी कृतार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान् भी प्रभावित थे। जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्राय: समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ। जीवन के अन्तिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा की। उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
आध्यात्मिक प्रेरणा
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील सन्न्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान् एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, अश्विनी कुमार दत्त के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। उनकी जगन्माता की निष्कपट प्रार्थना के फलस्वरूप ऐसे सैकड़ों गृहस्थ भक्त, जो बड़े ही सरल थे, उनके चारों ओर समूहों में एकत्रित हो जाते थे और उनके उपदेशामृत से अपनी आध्यात्मिक पिपासा शांत करते थे।
जीवन परिचय-
रामकृष्ण परमहंस ने पश्चिमी बंगाल के हुगली ज़िले में कामारपुकुर नामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फ़रवरी, सन् 1836 ई. में जन्म लिया। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। गदाधर के पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय निष्ठावान ग़रीब ब्राह्मण थे। वह अपने साधु माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गाँव के भोले-भाले लोगों के लिए भी शाश्वत आनंद के केंद्र थे। उनका सुंदर स्वरूप, ईश्वरप्रदत्त संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएँ, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, और सबके ऊपर उनकी अपने माता-पिता के प्रति अगाध भक्ति इन सबने उन्हें पूरे गाँव का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु 16 अगस्त 1886 को 50 वर्ष की उम्र मे कोलकाता में हो गया था |
दर्शन से कृतार्थ
रामकृष्ण परमहंस ने जगन्माता की पुकार के उत्तर में गाँव के वंशपरंपरागत गृह का परित्याग कर दिया और सत्रह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ ठहर गए, और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। रामकृष्ण परमहंस भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। जगज्जननी के गहन चिंतन में उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक संसर्ग को पूर्ण रूप से भुला दिया। माँ के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। अंत में उनकी प्रार्थना सुन ली गई और जगन्माता के दर्शन से वे कृतकार्य हुए। किंतु यह सफलता उनके लिए केवल संकेत मात्र थी। परमहंस जी असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुँच गए जहाँ से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे।
आध्यात्मिक विचार
इस प्रकार परमहंस जी का जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तर से क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊँचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुँचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुँचने के लिए आध्यात्मिक विचार- द्वैतवाद, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान् श्रेणियाँ मार्ग की अवस्थाएँ थीं। वे एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।
विवाह
बंगाल में बाल विवाह की प्रथा है। गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था। उनकी बालिका पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आयीं तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- "ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?" परमहंस जी कहा करते थे- "जो माँ जगत् का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।" ये विचार उनके अपनी पत्नी माँ शारदामणि के प्रति थे
अमृतोपदेश
एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा सन्न्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया। परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है, किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते। परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी कृतार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान् भी प्रभावित थे। जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्राय: समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ। जीवन के अन्तिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा की। उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
आध्यात्मिक प्रेरणा
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील सन्न्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान् एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, अश्विनी कुमार दत्त के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। उनकी जगन्माता की निष्कपट प्रार्थना के फलस्वरूप ऐसे सैकड़ों गृहस्थ भक्त, जो बड़े ही सरल थे, उनके चारों ओर समूहों में एकत्रित हो जाते थे और उनके उपदेशामृत से अपनी आध्यात्मिक पिपासा शांत करते थे।
2. मेरी प्राथमिक शिक्षा
मेरी प्राथमिक शिक्षा उत्तर प्रदेश, के अपने छोटे-से गांव के ही पास बड़ोखर खुर्द की प्राथमिक पाठशाला – जिला बोर्ड द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूल – में हुई थी । दो हॉलनुमा कमरों एवं बहु-उद्येश्यीय एक छोटे कमरे और उनके बाहर छतदार बीरामदे वाले उस समय के मेरे स्कूल में अधिकांश समय कक्षाएं बाहर खुले मैदान में ही – आम तौर पर पेड़ों की छांव में – होती थीं । कमरों का प्रयोग तभी होता था जब पानी बरस रहा हो अथवा एकदम चटक असह्य धूप फैली हो । तब पहली से पांचवीं तक की दो कक्षाओं की व्यवस्था उन कमरों और बची कक्षा बाहर बरंडे में व्यवस्थित की जाती थीं । कुल अध्यापक तीन । मैंने दस साल पूरा करते-करते पांचवीं कक्षा पास की थी । अब तक तो उस विद्यालय की स्थिति बदल चुकी होगी – शंका होती है कि सरकारी होने के कारण उसके हालात बिगड़ ही गये होंगे । बीस सालों से अधिक ही हो चुका कि मैं वहां जा नहीं पाया । मेरा गांव अब उजड़-सा गया है, केवल दो-चार लोग ही उधर बचे हैं; प्रायः सभी रोजी-रोटी कमाने बाहर निकल चुके हैं । वहां जाने की हिम्मत नहीं होती ।
अस्तु । मैं यह सगर्व कह सकता हूं कि मैंने उस विद्यालय में बहुत कुछ सीखा था । मेरे अध्यापक नियमतः कक्षाएं लेते थे, यद्यपि उन्हें दो-दो कक्षाएं एक साथ लेनी होती थीं । किसी एक कक्षा के छात्रों को लेखन-पठन कार्य सौंपकर वे दूसरे को पढ़ाने लगते थे । लेकिन पढ़ाई होती थी । शैतानी करने और गृहकार्य न करने पर डांट-डपट ही नहीं कभी-कभार मार भी पड़ती थी । काम कमोबेश चलता ही रहता था । अपनी पुस्तक की वह तस्वीर, जिसमें मानव देह की धमनियों और शिराओं को क्रमशः लाल एवं नीले रंग से रंगकर प्रदर्शित किया गया था, मेरे स्मृतिपटल पर आज भी करीब-करीब ताजा है । मुझे याद है कि कैसे हम लोग सादे कागज को पेंसिल से उर्ध्व-क्षैतिज रेखाएं खींचकर छोटे-छोटे खानों में बांटते थे और फिर उनके सहारे अपने जिले (बाँदा) का नक्शा बनाते थे । बाद में उस पर जिले की प्रमुख नदियों, पहाड़ियों, कस्बों-नगरों आदि के नाम अंकित करते थे । शायद कक्षा तीन में यह किया होगा । बाद में कक्षा चार में प्रदेश और कक्षा पांच में देश के नक्शे का अभ्यास भी ऐसे ही किया होगा ।

विद्यालय में सुविधाएं सीमित थीं । लेकिन जो कुछ था उसका कारगर उपयोग हम और हमारे शिक्षक करते थे, यह मैं निस्संकोच कह सकता हूं । मेरी शिक्षा की नींव उसी विद्यालय में पड़ी थी, जो मेरी बाद की पढ़ाई-लिखाई का सुदृढ़ आधार बनी । मुझे यह संतोष होता है कि सीमित संसाधनों के होते हुए भी वहां काफी हद तक ईमानदारी थी ।
आज कितने सरकारी विद्यालय होंगे जहां ईमानदारी बची होगी ? कितने लोग होंगे जो अपने बच्चों को स्वेच्छया, न कि मजबूरी में, सरकारी स्कूल में भेजना चाहेंगे ? कितने छात्र होंगे जिनकी बिना ट्यूशन के संतोषप्रद प्राथमिक शिक्षा संभव हो पाती होगी ?
मेरा मानना है कि स्वतंत्र भारत में सरकारी तंत्रों की कार्यप्रणाली में गिरावट आई है और उसके साथ ही शिक्षा का स्तर भी गिरा है ।
– रोहित कुमार
3. मेरा प्रिय स्थल (शेषनाग झील)
आज तक मैंने जितनी जगहें देखी हैं कश्मीर उन सबसे सुन्दर है । मैंने इसी वर्ष कश्मीर की सैर की । जैसे ही मैंने घाटी की सीमा में प्रवेश किया ‘धरती के इस स्वर्ग’ के सौन्दर्य को देखकर स्तब्ध रह गया । शेषनाग झील श्रीनगर, कश्मीर में एक प्रसिद्ध झील है। १८ किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई यह झील तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी हुई है। जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। इसमें स्रोतो से तो जल आता है साथ ही कश्मीर घाटी की अनेक झीलें आकर इसमें जुड़ती हैं। इसके चार प्रमुख जलाशय हैं गगरीबल, लोकुट डल, बोड डल तथा नागिन। लोकुट डल के मध्य में रूपलंक द्वीप स्थित है तथा बोड डल जलधारा के मध्य में सोनालंक द्वीप स्थित है। भारत की सबसे सुंदर झीलों में इसका नाम लिया जाता है। पास ही स्थित मुगल वाटिका से डल झील का सौंदर्य अप्रतिम नज़र आता है। पर्यटक जम्मू-कश्मीर आएँ और डल झील देखने न जाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता।किसी ने सही कहा है कि यह भारत का स्विरजरलैंड है ।
सचमुच कश्मीर घाटी दुनिया की सर्वाधिक मनोहर एवं रमणीय स्थली है । यह विशाल स्थल हिमालय के मध्य में स्थित है । कश्मीर देवताओं एवं आनुतोषिकों की निवास स्थली है । यहाँ विपुल मात्रा में फल फूल वनस्पति एवं जीवजन्तु पाये जाते हैं ।
इसके अतिरिक्त यहा बहुत से ऐतिहासिक स्मारक, चित्रोपम स्थल, रमणीय द्रश्य एवं हरे-भरे वन भी मौजूद हैं । यह न केवल भूमि पर ईश्वर का सर्वाधिक सुबुद्ध कार्य है अपितु कश्मीर मन्दिरों एवं मधुशालाओं की भी भूमि है । यहा न केवल विभिन्न देवी एवं देवता निवास करते हैं बल्कि साधु एवं सन्त भी बसते हैं ।
यहां की घुमावदार नदियाँ, बड़ी-बड़ी झीलें, विशाल झरने, बर्फ से ढके पहाड़, सुरू के लम्बे पेड़ एवं सुन्दर बगीचे इसके सौन्दर्य को साकार रुप देते हैं । यहां के ऐतिहासिक स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण है । निशात बाग, चंदन-बाड़ी, वेरी-नाग, अंनतनाग, चश्मेशाही नागिन लेक (झील) एवं शालीमार बाग यहा के दर्शनीय स्थल हैं ।
डल झील में खड़े शिकारे और पानी में उनके प्रतिबिम्ब एक चित्ताकर्षक द्रश्य प्रस्तुत करते हैं । विशाल जल प्रपातों के गिरने से निकलने वाला संगीत दिमाग को हिला देता है । अमरनाथ की गुफायें जहाँ शिवजी का एक मन्दिर है वह एक धार्मिक महत्व का स्थान है । यह पन्द्रह हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित है ।
इसके अतिरिक्त यहां धार्मिक महत्व के कई और भी स्थान एव ऐतिहासिक महत्व के कई तीर्थ स्थल स्थित है । प्रत्येक वर्ष हजारों तीर्थयात्री इन पुरातन एवं, धार्मिक तीर्थ स्थानों की यात्रा करते हैं । कश्मीर भारत के सर्वाधिक सुन्दर प्राकृतिक स्थलों में से एक है ।
इसकी नयनाभिराम दृश्यावली, हरे खेत देवदार एवं सुरू के ऊँचे पेड़ ईश्वर प्रदत धरती के इस स्वर्ग की खूबसूरती में चार चाँद लगा देते हैं । सम्पूर्ण घाटी रमणीय है । इसीलिये विदेशी भी भारी सख्या में यहाँ आर्कषित होते हैं । इसके अतिरिक्त कश्मीर घाटी में पहलगाम, गुलमर्ग, सोनमर्ग एवं खिलनमर्ग जैसे पर्वतीय स्थल भी मौजूद है ।
यह पर्वतीय स्थल न केवल मत्रमुग्ध करने वाले हैं अपितु स्वास्थ्य वर्धन के लिये भी उपयोगी हैं । कश्मीर में खिलनमर्ग में ही पेड़ों की श्रंखला समाप्त होती हैं । अपनी सांस्कृतिक धरोहर के साथ सम्पूर्ण घाटी के संकीर्ण दर्रे, अलंकृत, पहाड़ एवं घाटियाँ इसे भूमि का स्वर्ग बनाते हैं । सम्पूर्ण कश्मीर घाटी वास्तव में प्रकृति के सौन्दर्य एवं उदारता का मूर्त रूप है
-रोहित कुमार
5. मेरा प्रिय मित्र
रवि
के दादा-दादी भी उनके साथ रहते हैं वह हमेशा हमें शिक्षाप्रद कहानियां सुनाते हैं
और हमें बहुत ही स्नेह भी करते है. रवि भी अपने दादा-दादी की बहुत सेवा करता है और
उनकी हर एक आज्ञा का पालन करता है. रवि के दादा-दादी बहुत ही अच्छे स्वभाव के है.
उनसे मिलकर मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैं अपने दादा-दादी से मिल रहा हूँ.
रवि
सभी के साथ मिल जुल कर रहता है वह कभी भी किसी को नीचा नहीं दिखाता है और किसी से
झूठ भी नहीं बोलता है उसे झूठ बोलने वाले लोगों से सख्त नफरत रहती है. हम दोनों
विद्यालय में एक साथ खाना खाते हैं और एक दूसरे के साथ बांटते है. हम दोनों कभी भी
कोई बात एक दूसरे से नहीं छिपाते है.
रवि को पेंटिंग का बहुत शौख है उसे जैसे ही समय मिलता
है वह तरह तरह की पेंटिंग बनाता रहता है एक दिन हम बगीचे में बैठे थे तब उसने
बगीचे की हुबहूपेंटिंग बना दी यह सचमुच बहुत ही अच्छी थी उसने वह पेंटिंग मेरे जन्मदिन
पर मुझे भेट मैं दी थी.
4. मेरा प्रिय खेल (सांड युद्ध)
मनोरंजन के लिए सांडों से लड़ाई का खेल दुनियाभर के कई देशों में खेला जाता है. जहां स्थानीय स्तर पर इस खेल को काफ़ी समर्थन मिलता है वहीं पशु अधिकार कार्यकर्ता इसका विरोध भी करते रहे हैं. 'बुलफ़ाइटिंग' या सांडों की लड़ाई के साथ स्पेन की छवि बनती हैं जहां के 'मेटाडोर' दर्शकों के रोमांच के लिए सांड के सामने जान की बाज़ी भी लगा देते हैं|
स्पेन की बुलफ़ाइटिंग में मेटाडोर दर्शकों के मनोरंजन के लिए सांड को उकसाते हैं और अंत में चांदी की तलवार से उस पर घातक वार करते हैं| बुलफ़ाइटिंग को स्पेन में संस्कृति का अभिन्न अंग माना जाता है लेकिन यहां भी इस पर प्रतिबंध के लिए विरोध के स्वर प्रखर होते रहे हैं| 2010 में कैटेलोनिया क्षेत्र में इस खेल पर प्रतिबंध भी लगाए गए लेकिन बाद में अदालत ने इन्हें रद्द कर दिया| अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि
'साझा सांस्कृतिक विरासत को सहेजना' स्थानीय सरकार की ज़िम्मेदारी है. अदालत ने बुलफ़ाइटिंग को साझा संस्कृति का हिस्सा माना था| स्पेन के सांस्कृतिक असर वाले कई और देशों में भी ये खेल अलग-अलग प्रारूपों में खेला जाता है| फ्रांस के दक्षिणी इलाक़ों में सांडों से लड़ाई का खेल क़रीब डेढ़ सौ सालों से खेला जा रहा है| फ्रांस में 1976 में पारित एक क़ानून के तहत पशु क्रूरता अपराध है लेकिन इस खेल को 'अटूट स्थानीय परंपरा' मानकर छूट दी गई है. नाइम्स में होने वाले सालाना पांचदिवसीय उत्सव में क़रीब दस लाख लोग शामिल होते हैं| पुर्तगाल में होने वाले सांडों की लड़ाई के खेल के अंत में सांड की जान नहीं ली जाती है| यहां लड़ाके घोड़े पर बैठकर सांड से लड़ते हैं. यही नहीं सांडों के सींगों को भी कई बार भर दिया जाता है ताक़ि उनका पैनापन कम किया जा सके.
स्पेन की बुलफ़ाइटिंग में मेटाडोर दर्शकों के मनोरंजन के लिए सांड को उकसाते हैं और अंत में चांदी की तलवार से उस पर घातक वार करते हैं| बुलफ़ाइटिंग को स्पेन में संस्कृति का अभिन्न अंग माना जाता है लेकिन यहां भी इस पर प्रतिबंध के लिए विरोध के स्वर प्रखर होते रहे हैं| 2010 में कैटेलोनिया क्षेत्र में इस खेल पर प्रतिबंध भी लगाए गए लेकिन बाद में अदालत ने इन्हें रद्द कर दिया| अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि
'साझा सांस्कृतिक विरासत को सहेजना' स्थानीय सरकार की ज़िम्मेदारी है. अदालत ने बुलफ़ाइटिंग को साझा संस्कृति का हिस्सा माना था| स्पेन के सांस्कृतिक असर वाले कई और देशों में भी ये खेल अलग-अलग प्रारूपों में खेला जाता है| फ्रांस के दक्षिणी इलाक़ों में सांडों से लड़ाई का खेल क़रीब डेढ़ सौ सालों से खेला जा रहा है| फ्रांस में 1976 में पारित एक क़ानून के तहत पशु क्रूरता अपराध है लेकिन इस खेल को 'अटूट स्थानीय परंपरा' मानकर छूट दी गई है. नाइम्स में होने वाले सालाना पांचदिवसीय उत्सव में क़रीब दस लाख लोग शामिल होते हैं| पुर्तगाल में होने वाले सांडों की लड़ाई के खेल के अंत में सांड की जान नहीं ली जाती है| यहां लड़ाके घोड़े पर बैठकर सांड से लड़ते हैं. यही नहीं सांडों के सींगों को भी कई बार भर दिया जाता है ताक़ि उनका पैनापन कम किया जा सके.
भारत मे सांड युद्ध (जल्ली कट्टू )
वहीं भारत के तमिलनाडु में खेले जाने वाले पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू में लड़ाई के बाद बैल की जान नहीं ली जाती है और न ही बैल से लड़ने वाले युवा किसी हथियार का इस्तेमाल करते हैं.भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू को पशु क्रूरता मानते हुए इस पर प्रतिबंध लगा दिया है जिसे लेकर तमिलनाडु में प्रदर्शन हो रहे हैं.
प्रदर्शनकारी अदालत के फ़ैसले को अपनी परंपराओं में ग़ैर ज़रूरी दख़ल मान रहे हैं.
जल्लीकट्टू के समर्थन मे तमिलनाडू मे विरोध प्रदर्शन करते हुए युवा
वहीं भारत के तमिलनाडु में खेले जाने वाले पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू में लड़ाई के बाद बैल की जान नहीं ली जाती है और न ही बैल से लड़ने वाले युवा किसी हथियार का इस्तेमाल करते हैं.भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू को पशु क्रूरता मानते हुए इस पर प्रतिबंध लगा दिया है जिसे लेकर तमिलनाडु में प्रदर्शन हो रहे हैं.
प्रदर्शनकारी अदालत के फ़ैसले को अपनी परंपराओं में ग़ैर ज़रूरी दख़ल मान रहे हैं.
जल्लीकट्टू के समर्थन मे तमिलनाडू मे विरोध प्रदर्शन करते हुए युवा
5. मेरा प्रिय मित्र
रवि
की भाषा शैली बहुत ही कमाल की है वह सभी से इतने अच्छे से बात करता है कि सभी मुझे
प्यार करते है. उसकी सोच सबसे अलग है वह सभी की मदद करता है वह कभी किसी से घृणा
नहीं करता है जबकि मैं पहले घृणा करता था लेकिन अब रवि के साथ रहने के कारण मेरी
आदत भी बदल गई है.रवि
के पिताजी शहर के बड़े अस्पताल में डॉक्टर है वे बहुत ही अच्छे हैं जब भी मैं उनके
घर जाता हूं तो वह मुझे बहुत प्यार करते है और कभी-कभी हमें बाजार में घुमाने भी
ले जाते है. रवि की माता जी एक अध्यापिका है वह बहुत ही शांत एवं विनम्र महिला है.
जब भी मैं रवि के घर जाता हूं तो वह हमेशा मुझे नाश्ता करवाती है और हमारी पढ़ाई
लिखाई के बारे में भी पूछती है.

रवि भी बड़ा होकर अपने पिताजी की तरह
ही एक बड़ा डॉक्टर बनना
चाहता है. सभी हमेशा मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करता है एक दिन की बात है जब हम
दोनों साथ में बाजार में जा रहे थे तब एक अंधा व्यक्ति सड़क पार नहीं कर पा रहा था
तो उसने उनका हाथ पकड़कर सड़क पार कर आयी यह देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा.
रवि
के दिल में हमेशा सभी के लिए प्यार रहता है वह हमेशा मेरी मदद करता है पहले मैं
पढ़ाई में कमजोर था लेकिन जब से रवि मेरा मित्र बना है तब से मैं भी कक्षा में
अव्वल नंबरों से पास होता हूं. विद्यालय में रवि को सब जानते हैं और उसकी प्रतिभा
का लोहा भी मानते है.
रवि
और मेरा घर एक ही मोहल्ले में है इसलिए हम सुबह जल्दी उठकर बगीचे में घूमने भी
जाते हैं और विद्यालय से आने के बाद में हम
सभी मित्र मिलकर क्रिकेट भी खेलते है क्रिकेट हमारा पसंदीदा खेल है. रवि हर बार
कक्षा में प्रथम आता है रवि पढ़ाई में होशियार होने के साथ-साथ खेलों में भी रुचि
रखता है.
रवि
का पसंदीदा खेल शतरंज है जब भी शतरंज खेल का आयोजन होता है तो रवि हमेशा उस में
हिस्सा लेता है और जीत कर आता है वह हमेशा विद्यालय का नाम रोशन करता है. वह हमेशा
साफ सुथरे कपड़े पहनता है और हमने भारत के स्वस्थ अभियान में हिस्सा लेकर हमारे
मोहल्ले की सफाई भी की थी इसके लिए हम सभी को मोहल्ले वासियों की तरफ से सम्मानित
भी किया गया था.
रवि
और मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगता है इसलिए हम हर
साल विद्यालय के वार्षिक उत्सव में कविताएं सुनाते है पिछली बार मैंने सूरज पर और
रवि ने चांद पर कविता सुनाई थी और लोग कविताएं सुनकर बहुत खुश होते हैं हमारे लिए
तालियां बजाते हैं यह देख कर मुझे बहुत ही अच्छा लगता है.

वह
सदा आत्मविश्वास से भरा रहता है वह नई शिक्षा ग्रहण करने के लिए बड़ा उत्सुक रहता
है उसके मुंह पर एक अलग सा ही तेज है जिसके कारण सभी लोग उसे प्यार करते है. वह
हमेशा निस्वार्थ भाव से सभी की सेवा करता है हमारी दोस्ती में भी कभी कोई स्वार्थ
नहीं रहा है शायद इसीलिए हम इतने अच्छे दोस्त है.
वह
मेरा सच्चा मित्र है क्योंकि उसने विपत्ति में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा था एक बार
की बात है मैं बहुत बीमार हो गया था जब जैसे ही उसको पता चला वह मेरी सेवा करने के
लिए दौड़ा दौड़ा हॉस्पिटल आ गया फोन तो दिन तक लगातार मेरे साथ रहा जब तक कि मुझे
हॉस्पिटल से डिस्चार्ज नहीं कर दिया गया.
रवि को पेंटिंग का बहुत शौख है उसे जैसे ही समय मिलता
है वह तरह तरह की पेंटिंग बनाता रहता है एक दिन हम बगीचे में बैठे थे तब उसने
बगीचे की हुबहूपेंटिंग बना दी यह सचमुच बहुत ही अच्छी थी उसने वह पेंटिंग मेरे जन्मदिन
पर मुझे भेट मैं दी थी.
मैं
जब भी मेरे घर पर आता है तो सबसे पहले मेरे माता पिता जी चरण स्पर्श करता है और
उनका आशीर्वाद लेता है इससे यह जाहिर होता है कि वह बड़ों का कितना सम्मान और आदर
करता है. वह हमेशा मेरे माता पिता जी से उनकी तबीयत के बारे में पूछता हूं यह देख
कर कभी-कभी तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते है कि कोई इतना अच्छा कैसे हो सकता है.
वह
हमेशा ही मेरी प्रेरणा रहा है उसी के कारण आज मेरी आदतों में इतना बड़ा बदलाव आया
है वह नहीं होता तो शायद आज मैं इतना अच्छा नहीं हो पाता. वह सही मायनों में मेरा
सबसे प्रिय मित्र है. वह अच्छा मित्र होने के साथ-साथ एक अच्छा भाई भी है और अच्छा
पुत्र भी है. मुझे गर्व है कि मुझे कभी जैसा प्रिय मित्र मिला.
आप जीवन में भले ही कम मित्र बनाएं
लेकिन मित्र कैसे बनाएं जो कभी भी किसी भी मुसीबत में आपका साथ नहीं छोड़ें.
-
रोहित कुमार
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